हिन्दी पत्रकारिता की अज़ीम-ओ -शान शख्सियत ''शशि शेखर''
चार सितम्बर का दिन मेरे लिए बेहद खुशी भरा रहा. इस दिन शशि शेखर जी को देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ''हिंदुस्तान'' का प्रधान संपादक बनाया गया. पत्रकारिता में हिंदुस्तान ग्रुप के नाम से पुरा भारत वाकिफ है. शशि जी को इस समूह के प्रधान संपादक बनाया जाना एक बड़ी बात है . हिंदुस्तान के संपादक बनाने के साथ ही शशि जी देश के शीर्ष संपादकों की कतार में आ गए हैं. हलाकि पत्रकारिता में शशि जी ख़ुद एक ब्रांड बन चुके हैं.ऐसे में उनका हिंदुस्तान में जाना उनके लिए उतना तो इंतना मायिने नही रखता जितना की हिंदुस्तान के लिए. हाँ, हिंदुस्तान ग्रुप ने उनकी रचनात्मकता को पहचाना इसके लिए वे लोग प्रशंसा के पात्र हैं. शशि जी की काबलियत ने हमेशा ही मुझे प्रभावित किया है.
मुझे याद है के उनको सबसे पहले ''इंडिया टुडे'' मैगजीन के सम्पादकीय में पढ़ा था. गोया उस समय में ९ वीं क्लास में था. सम्पादकीय का मजमून आयुध कारखानों में हो रहे विस्फोटों से था. ये विषय मेरी समझ से परे था. लाइब्रेरी में चंपक और नन्दन को खोजते समय ये मैगजीन मेरे हाथ आई थी. सम्पादकीय के नीचे शशि शेखर लिखा था. इस नाम ने मुझे बेहद आकर्षित किया,क्यूँ ये आज भी नही जनता...हाँ, इसके बाद उनके बारे में जानने का सिलसिला जरुर शुरू हो गया. बी. ए.में दाखिला लेने के बाद ही मैंने शोकिया "दैनिक जागरण", मैनपुरी में जाना शुरू कर दिया. २००१ में पत्रकारिता के दौरान कबरेज के लिए मुझे एक गोष्ठी में जाने का मौका मिला, ऑफिस के सामने ही गोष्ठी थी. गोष्ठी ख़त्म होने पर मेरे एक परचित ने एक वृद्ध दम्पति से मेरा तार्रुफ़ कराया.....जगत प्रकाश चतुर्वेदी और किरण चतुर्वेदी. बताया गया के यही शशि जी के माता पिता हैं. मुझे बेहद खुशी हुयी. इस मुलाकात में मुझे मालूम हुआ की शशि जी मैनपुरी के हैं. उस समय शशि जी ''आज तक'' में थे. इसमें कोई शक नही है, कि शशि जी ने इस जटिल दोर में भी हिन्दी पत्रकारिता को एक नया मकाम देने का काम किया है. वे बेहद खुद्दार और निडर पत्रकार हैं. शशि जी मेरे अज़ीज़ पत्रकार इस लिए भी हैं क्यों कि उन्होंने बचपन से ही पत्रकार बनने की ठानी थी. इलाहाबाद में जब शशि जी छोटी क्लास में थे,उनका एक टेस्ट लिया गया, मास्टर जी ने उनसे पूछा कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ? शशि जी का जवाब था कि बड़े होकर वे अखबार निकालेगें. इस पर मास्टर जी उनकी कापी पर लिखा कि बच्चा मंदबुधि है.'' खैर, इस तरह के कई प्रसंग और संस्मरण उनके साथ जुड़े हैं. आगरा में जब "दैनिक आज" में वे आये तो उनके सामने कई मुश्किलें थी. इस अखबार के रेजिडेंट एडिटर बनने से पहले "आज" तीन बार बंद हों चूका था. बावजूद इसके उन्होंने काम शुरू किया और जल्द ही "आज" आगरा में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार बन गया. कहने का मतलब है कि उन्होंने रेस में हारे घोडे पर दाव लगया, और अपनी काबलियत से उसे लोगो के सामने जीता कर दिखया. ये असली काबलियत और हौसला है. मेरी उनसे मुलाकात कुछ मिनटों की है, वे "अमर उजाला" नोएडा के १० बाई १० के जबरदस्ती से बनाये गए एक ऑफिस में हाफ टीशर्ट में कम्पयूटर पर काम कर रहे थे, उनका चेहरा काम से थका था, बावजूद उन्होंने मुझे समय दिया. ये मेरे लिए किसी अहसान से काम नहीं है. मैं नौकरी मांगने उनके पास आया था.उन्होंने फ़ौरन मेरा बायो डाटा देख कर देहरादून उप संपादक बना कर जाने को कहा. पहली मुलाकात में इतनी इनायत मुझे किसी ने नहीं बख्शी. इसे उनकी दरियादिली कहूँ या जिन्दादिली,.....मैं नहीं जनता, जो भी था दिल को छु गया. उनके बारे मैंने अक्सर सुना है वे बेहद मुडी किस्म के, पुराने टाईप के संपादक हैं..आदि-आदि ,लेकिन मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा. उनकी खुद्दारी उनके चेहरे से साफ़ पढ़ी जा सकती है.
एक बार फिर ४ सितम्बर पर लोटते हैं, हलाकि मुझे २८ अगस्त को ही खबर हों गयी थी शशि जी ''हिंदुस्तान'' में आ रहे हैं, फ़िर भी हिंदुस्तान के पहले पेज पर उनकी तस्वीर के साथ प्रधान संपादक बनने के खबर देखने पर बेहद ख़ुशी हुयी. मैंने चैनल पर फ़ौरन ये खबर ब्रेक की. फिर मैंने इस पर एक खबर प्रसारित करने की सोची, मैंने अपने रिपोटर्स को शहर के तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के पास इस उपलब्धि पर राय लेने के लिए भेजा, जिस खबर पर पूरा देश चर्चा कर रहा था..... मैनपुरी में उस खबर पर हल्की सी जुम्बिश भी नही थी! मुझे लगा की इस खबर पर कुछ नही तो जिले की मीडिया तो खुश होगी! मुझे बेहद दुःख हुआ. आख़िर इस मैनपुरी को हुआ क्या है? बरहाल "सत्यम परिवार" ने इस खुशी को पुरी शिद्दत से सेलिब्रेट किया. जिस अख़बार में वो गए उस अख़बार ने भी जिले से एक सिंगल कॉलम समाचार नही लगाया!! मुझे इस बात का दुःख है, इस लिए इस दर्द को बयां कर रहा हूँ बाकी मेरा मकसद किसी की आलोचना करना नही है, ये मेरा अपना बुरा- भला अनुभव है...
हृदेश सिंह
मुझे याद है के उनको सबसे पहले ''इंडिया टुडे'' मैगजीन के सम्पादकीय में पढ़ा था. गोया उस समय में ९ वीं क्लास में था. सम्पादकीय का मजमून आयुध कारखानों में हो रहे विस्फोटों से था. ये विषय मेरी समझ से परे था. लाइब्रेरी में चंपक और नन्दन को खोजते समय ये मैगजीन मेरे हाथ आई थी. सम्पादकीय के नीचे शशि शेखर लिखा था. इस नाम ने मुझे बेहद आकर्षित किया,क्यूँ ये आज भी नही जनता...हाँ, इसके बाद उनके बारे में जानने का सिलसिला जरुर शुरू हो गया. बी. ए.में दाखिला लेने के बाद ही मैंने शोकिया "दैनिक जागरण", मैनपुरी में जाना शुरू कर दिया. २००१ में पत्रकारिता के दौरान कबरेज के लिए मुझे एक गोष्ठी में जाने का मौका मिला, ऑफिस के सामने ही गोष्ठी थी. गोष्ठी ख़त्म होने पर मेरे एक परचित ने एक वृद्ध दम्पति से मेरा तार्रुफ़ कराया.....जगत प्रकाश चतुर्वेदी और किरण चतुर्वेदी. बताया गया के यही शशि जी के माता पिता हैं. मुझे बेहद खुशी हुयी. इस मुलाकात में मुझे मालूम हुआ की शशि जी मैनपुरी के हैं. उस समय शशि जी ''आज तक'' में थे. इसमें कोई शक नही है, कि शशि जी ने इस जटिल दोर में भी हिन्दी पत्रकारिता को एक नया मकाम देने का काम किया है. वे बेहद खुद्दार और निडर पत्रकार हैं. शशि जी मेरे अज़ीज़ पत्रकार इस लिए भी हैं क्यों कि उन्होंने बचपन से ही पत्रकार बनने की ठानी थी. इलाहाबाद में जब शशि जी छोटी क्लास में थे,उनका एक टेस्ट लिया गया, मास्टर जी ने उनसे पूछा कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ? शशि जी का जवाब था कि बड़े होकर वे अखबार निकालेगें. इस पर मास्टर जी उनकी कापी पर लिखा कि बच्चा मंदबुधि है.'' खैर, इस तरह के कई प्रसंग और संस्मरण उनके साथ जुड़े हैं. आगरा में जब "दैनिक आज" में वे आये तो उनके सामने कई मुश्किलें थी. इस अखबार के रेजिडेंट एडिटर बनने से पहले "आज" तीन बार बंद हों चूका था. बावजूद इसके उन्होंने काम शुरू किया और जल्द ही "आज" आगरा में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार बन गया. कहने का मतलब है कि उन्होंने रेस में हारे घोडे पर दाव लगया, और अपनी काबलियत से उसे लोगो के सामने जीता कर दिखया. ये असली काबलियत और हौसला है. मेरी उनसे मुलाकात कुछ मिनटों की है, वे "अमर उजाला" नोएडा के १० बाई १० के जबरदस्ती से बनाये गए एक ऑफिस में हाफ टीशर्ट में कम्पयूटर पर काम कर रहे थे, उनका चेहरा काम से थका था, बावजूद उन्होंने मुझे समय दिया. ये मेरे लिए किसी अहसान से काम नहीं है. मैं नौकरी मांगने उनके पास आया था.उन्होंने फ़ौरन मेरा बायो डाटा देख कर देहरादून उप संपादक बना कर जाने को कहा. पहली मुलाकात में इतनी इनायत मुझे किसी ने नहीं बख्शी. इसे उनकी दरियादिली कहूँ या जिन्दादिली,.....मैं नहीं जनता, जो भी था दिल को छु गया. उनके बारे मैंने अक्सर सुना है वे बेहद मुडी किस्म के, पुराने टाईप के संपादक हैं..आदि-आदि ,लेकिन मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा. उनकी खुद्दारी उनके चेहरे से साफ़ पढ़ी जा सकती है.
एक बार फिर ४ सितम्बर पर लोटते हैं, हलाकि मुझे २८ अगस्त को ही खबर हों गयी थी शशि जी ''हिंदुस्तान'' में आ रहे हैं, फ़िर भी हिंदुस्तान के पहले पेज पर उनकी तस्वीर के साथ प्रधान संपादक बनने के खबर देखने पर बेहद ख़ुशी हुयी. मैंने चैनल पर फ़ौरन ये खबर ब्रेक की. फिर मैंने इस पर एक खबर प्रसारित करने की सोची, मैंने अपने रिपोटर्स को शहर के तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के पास इस उपलब्धि पर राय लेने के लिए भेजा, जिस खबर पर पूरा देश चर्चा कर रहा था..... मैनपुरी में उस खबर पर हल्की सी जुम्बिश भी नही थी! मुझे लगा की इस खबर पर कुछ नही तो जिले की मीडिया तो खुश होगी! मुझे बेहद दुःख हुआ. आख़िर इस मैनपुरी को हुआ क्या है? बरहाल "सत्यम परिवार" ने इस खुशी को पुरी शिद्दत से सेलिब्रेट किया. जिस अख़बार में वो गए उस अख़बार ने भी जिले से एक सिंगल कॉलम समाचार नही लगाया!! मुझे इस बात का दुःख है, इस लिए इस दर्द को बयां कर रहा हूँ बाकी मेरा मकसद किसी की आलोचना करना नही है, ये मेरा अपना बुरा- भला अनुभव है...
हृदेश सिंह
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