खलीश हिन्दुस्तानी पत्रकार ''प्रभाष जोशी''
रोज़ की तरह देश विदेश की खबरों के लिए मैं नेट पर बैठा था.हिंदुस्तान के पोर्टल से पता चला की ''प्रभाष जोशी'' का निधन हो गया.मैं चोंक गया.ये कैसे हो सकता है...दर्जनों सवाल एक साथ दिमाग में लहराने लगे.लेकिन ये सच था. 5 नव. 09 रात उनका ह्रदय गति रुकने से उनका निधन हो गया.मुझे बेहद दुःख हुआ.इस दुखद समाचार को फोरन सत्यम पर ब्रेक करने के बाद उनके साथ बिताये पलों को याद करने लगा.मेरी उनसे मुलाक़ात भारतीय जनसंचार संस्थान में हुई थी. तारीख थी 25 अगस्त 04. उस समय इस संस्थान में पढाई कर रहा था.उनके बारे मैंने बहुत कुछ सुना था.ऐसे में उन से मिलने को में बेताब था.प्रो.आनंद प्रधान के साथ कलफ लगे सफ़ेद कुरता और धोती में वे क्लास में दाखिल हुए.उनके चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वाश था.एक सम्मोहन था.हम लोग उसमें कैद हो चुके थे.क्लास शुरू हुई.पहली बात चुनाव को लेकर हुई.देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था. प्रभाष जी ने बताया की उसमें वे शामिल रहे.किसी रिश्तेदार के लिए प्रचार किया था.कहने का मतलब सीधा है की प्रभाष जी उन पत्रकारों में थे जिन्होंने पहले चुनाव से लेकर १४ वी लोकसभा तक के चुनाव देखे थे.प्रभाष जी ने 1956 के आसपास पत्रकारिता की शुरुआत की.उनकी कलम सच की स्याही से भरी थी.ये ही उनकी लोकप्रियता का कारण था.उनकी पर्सनाल्टी खलीश हिन्दुस्तानी पत्रकार की थी.उनका कहना था कि''असली पत्रकार वही है जो जन पांडे (एक खास विधि से जमीन में पानी के श्रोत को तलाश करने वाला) कि तरह जमीन पर हाथ रखकर चीजों की पहचान कर सके.क़र्ज़ और भुखमरी से मरने वाले किसानों को लेकर बेहद दर्द था.मीडिया में कार्पोरेट के दखल से होने वाले नुकसानों को सबसे पहले प्रभाष जी ने ही जनता को बताया था.आंध्र प्रदेश में किसानों की मो़त पर उन्होंने जमकर लिखा था.सरकार को उस पर सफाई तक देनी पड़ी थी.
प्रभाष जी मानते थे कि''पत्रकार को स्वतंत्र बुद्धि विवेक को त्यागना नहीं चाहिए.फिर परस्थिति कुछ भी हो.पत्रकार को यही जीवित रखती है.''आज के दौर में इस तरह से अपनी बात कहते हुए मैंने बहुत कम लोग देखे है.ये बात वही कह सकता है जो खुद इस तरह का हो.
प्रभाष जी वाकई में ऐसे थे......प्रभाष जी ने मुझ से कहा था कि ''पत्रकार को अपना विष सम्हाल कर रखना चाहिए.इस पर उन्होंने दिनकर की ''क्षमा शीर्षक'' वाली कविता की कुछ लाइन सुनाई.नए पत्रकारों को वे हमेसा आगे बढाते थे.खबर से लेकर सम्पादकीय तक को किस तरह से लिखना चाहिए इस पर उनके पास अनुभवों का खजाना था.प्रभाष जी का कहना था कि''सम्पादकीय लिखते समय पाठक को माई बाप मानकर चलना चाहिए.मुझे उनकी सबसे ज्यादा जिस बात ने प्रभावित किया वो ये थी कि ''इरादों में खोट नहीं देखनी चाहिए.गाँधी जी भी ऐसा ही कहते थे.जोश और उत्साह से भरे पत्रकारों के लिए वे कहते थे कि ''अविरोध में नए पत्रकार काम करते चलें.भले उनका संपादक बिका हो.''
हृदेश सिंह
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