देश में योग्य संपादकों की कमी को पूरा किया जाये
सन 1990 में कंप्यूटर तकनीक के आ जाने से पत्रकारिता में तेजी बदलाव आया.कई छोटे अखबारों का प्रसार देखते ही देखते ज्यामिती ढंग से बढने लगा.उदारीकरण की नीतियों का हर जगह असर दिखने लगा.ये बदलाव ज़मीन से लेकर इंसानी दिमाग पर असर डाल रहा था.हिंदुस्तान बदल रहा था.छोटे शहर मसलन मैनपुरी.एटा.इटावा जैसे बेहद छोटे और पिछड़े जिलों मैं भी इस बदलाव के पुख्ता तोर पर सबूत मिलने लगे थे.बाबरी मस्जिद का मुद्दा उस समय पुरे सबाव पर था.इस घटना ने खास तोर पर हिंदी पत्रकारिता को जनजन तक पहुँचाने में अहम भूमिका अदा की.
90 का दशक बदलाव लेकर आया था.राजनीती.आर्थिक.सामाजिक हर चीज़ पर असर हो रहा था.उधर इराक में अमेरिकी फोज़ का दखल.ये उस दौर की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटना थी.सेट लाइट चेनल को लोकप्रिय और इसके प्रति जनता में जिज्ञासा पैदा करने में इराक -अमेरिका के विवाद ने अहम भूमिका निभाई.हिंदुस्तान की जनता ने राम रावण के युद्ध के बाद सम्भवता इसी युद्ध की मनोरंजन के तौर पर लिया.रोनी स्क्रोबाला ने सबसे पहले हिंदुस्तान की जनता को इस युद्ध के फोटेज़ ख़बरों में पेश किये.हिंदुस्तान में सेट लाइट चेनल की यहीं से शुरुआत हुयी.जनता टीवी पर अब इस युद्ध को देख कर मनोरंजन कर रही थी.यानि जनता इस युद्ध को युद्ध की तरह न लेकर टीवी के जरिये मनोरंजन के तौर पर ले रही थी।
इधर अख़बारों में मशीनों के इस्तेमाल ने नई शुरुआत की कर दी थी.दैनिक जागरण.अमर उजाला.जैसे अख़बारों पर इन बदलावों का सबसे ज्यादा असर देखा गया.अखबार रंग बिरंगे होने लगे थे.कलेवर बदलने लगे.बोटम न्यूज़ अब पेज- थ्री के आगे बेकार लगने लगी थीं. कई मंथली मैगज़ीन अब विकली हो चुकीं थी.पाठकों का बड़ा वर्ग अब खबरों को जानकारी की भूंख मिटने के लिए पहली बार जनता सूचना के इतने सारे माध्यमों का एक साथ प्रयोग कर रहा था. मोजूदा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्तमंत्री थे..आर्थिक सुधार का फ़ॉर्मूला लेकर आये थे.जो कामयाब हो रहा था....
मीडिया के विकास से इस सुधार का असर जनता के दिमाग पर हो रहा था.देखा जाए तो इस दौर में ही पत्रकारिता में गिरावट आने लगी थी उल्टा पिरामिट शैली जो सेकेंड वर्ल्ड वार में विकसित हुयी थी वो इस दौर में ब्रेकिंग न्यूज़ के सहारे चलने लगी थी.ब्रेकिंग न्यूज़ से पत्रकारिता में खबरों का छलिया पन अब साफ़ दिखाई देने लगा था.पत्रकारिता में गम्भीरता की कमी यहीं से शुरू हुयी.आज देश में योग्य संपादकों के बेहद कमी महसूस होती है.80 के दशक में संपादकों के फोज़ थी जो हर मामलें में जनता के दिमाग के ताले खोल रही थी. इमर्जेसी के दौरान गम्भीर पत्रकारिता की शानदार झलक देखने को मिली.उस दौर के ही पत्रकार आज भी पत्रकारिता जगत के सिरमोर हैं.अख़बारों के रीजनल होने से प्रचार और प्रसार में इजाफा हुआ लेकिन कंटेंट के मामले में अखबार के तेवरों में वो बात नहीं दिखती जो अस्सी और नब्बे के दशक में नजर आती थी.जबकि आज पत्रकारिता का स्कोप बढ़ा है.कई संस्थान आज पत्रकारिता की डिग्री दे रहे है.इन संस्थानों में पढने वालों की भीड़ भी लग रही है.बावजूद पत्रकारिता में गम्भीरता कम होने की बात अक्सर सुनी जाती है.दरसअल पत्रकारिता में मेहनती पत्रकारों की कमी है.वे सम्मान तो चाहते है लेकिन ज्ञान हासिल करने से कतराते हैं.देश में योग्य संपादकों की बेहद कमी है.देश में प्रशासन और सेना में अफसरों की कमी के तो खूब समाचार देखते और सुनते हैं लेकिन संपादकों को लेकर कभी इस तरह के चर्चा भी नहीं होती?समाचर पत्रों और चेनल में काबिल संपादकों की कमी बेहद चिंता का विषय होना चाहिए.और सीनियर संपादकों और पत्रकारों को इस पर गम्भीर होना चाहिए.कहने का मतलब ये है की आज जिस तरह से पत्रकारिता पर सवाल किये जाते हैं उनके मूल में सबसे बड़े कारण को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है.
हृदेश सिंह
90 का दशक बदलाव लेकर आया था.राजनीती.आर्थिक.सामाजिक हर चीज़ पर असर हो रहा था.उधर इराक में अमेरिकी फोज़ का दखल.ये उस दौर की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटना थी.सेट लाइट चेनल को लोकप्रिय और इसके प्रति जनता में जिज्ञासा पैदा करने में इराक -अमेरिका के विवाद ने अहम भूमिका निभाई.हिंदुस्तान की जनता ने राम रावण के युद्ध के बाद सम्भवता इसी युद्ध की मनोरंजन के तौर पर लिया.रोनी स्क्रोबाला ने सबसे पहले हिंदुस्तान की जनता को इस युद्ध के फोटेज़ ख़बरों में पेश किये.हिंदुस्तान में सेट लाइट चेनल की यहीं से शुरुआत हुयी.जनता टीवी पर अब इस युद्ध को देख कर मनोरंजन कर रही थी.यानि जनता इस युद्ध को युद्ध की तरह न लेकर टीवी के जरिये मनोरंजन के तौर पर ले रही थी।
इधर अख़बारों में मशीनों के इस्तेमाल ने नई शुरुआत की कर दी थी.दैनिक जागरण.अमर उजाला.जैसे अख़बारों पर इन बदलावों का सबसे ज्यादा असर देखा गया.अखबार रंग बिरंगे होने लगे थे.कलेवर बदलने लगे.बोटम न्यूज़ अब पेज- थ्री के आगे बेकार लगने लगी थीं. कई मंथली मैगज़ीन अब विकली हो चुकीं थी.पाठकों का बड़ा वर्ग अब खबरों को जानकारी की भूंख मिटने के लिए पहली बार जनता सूचना के इतने सारे माध्यमों का एक साथ प्रयोग कर रहा था. मोजूदा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्तमंत्री थे..आर्थिक सुधार का फ़ॉर्मूला लेकर आये थे.जो कामयाब हो रहा था....
मीडिया के विकास से इस सुधार का असर जनता के दिमाग पर हो रहा था.देखा जाए तो इस दौर में ही पत्रकारिता में गिरावट आने लगी थी उल्टा पिरामिट शैली जो सेकेंड वर्ल्ड वार में विकसित हुयी थी वो इस दौर में ब्रेकिंग न्यूज़ के सहारे चलने लगी थी.ब्रेकिंग न्यूज़ से पत्रकारिता में खबरों का छलिया पन अब साफ़ दिखाई देने लगा था.पत्रकारिता में गम्भीरता की कमी यहीं से शुरू हुयी.आज देश में योग्य संपादकों के बेहद कमी महसूस होती है.80 के दशक में संपादकों के फोज़ थी जो हर मामलें में जनता के दिमाग के ताले खोल रही थी. इमर्जेसी के दौरान गम्भीर पत्रकारिता की शानदार झलक देखने को मिली.उस दौर के ही पत्रकार आज भी पत्रकारिता जगत के सिरमोर हैं.अख़बारों के रीजनल होने से प्रचार और प्रसार में इजाफा हुआ लेकिन कंटेंट के मामले में अखबार के तेवरों में वो बात नहीं दिखती जो अस्सी और नब्बे के दशक में नजर आती थी.जबकि आज पत्रकारिता का स्कोप बढ़ा है.कई संस्थान आज पत्रकारिता की डिग्री दे रहे है.इन संस्थानों में पढने वालों की भीड़ भी लग रही है.बावजूद पत्रकारिता में गम्भीरता कम होने की बात अक्सर सुनी जाती है.दरसअल पत्रकारिता में मेहनती पत्रकारों की कमी है.वे सम्मान तो चाहते है लेकिन ज्ञान हासिल करने से कतराते हैं.देश में योग्य संपादकों की बेहद कमी है.देश में प्रशासन और सेना में अफसरों की कमी के तो खूब समाचार देखते और सुनते हैं लेकिन संपादकों को लेकर कभी इस तरह के चर्चा भी नहीं होती?समाचर पत्रों और चेनल में काबिल संपादकों की कमी बेहद चिंता का विषय होना चाहिए.और सीनियर संपादकों और पत्रकारों को इस पर गम्भीर होना चाहिए.कहने का मतलब ये है की आज जिस तरह से पत्रकारिता पर सवाल किये जाते हैं उनके मूल में सबसे बड़े कारण को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है.
हृदेश सिंह
हिर्देश, बहुत बढ़िया लिखा आपने ! कभी कभी खुद पर नाज़ होता है कि आप को इतना नज़दीक से जानने का सौभाग्य मिला है ! मैनपुरी को आप जैसे युवा पत्रकारों पर नाज़ है | आपको और आपके 'सत्यम न्यूज़ चैनल' की पूरी टीम को बहुत बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeletebahut accha likha hai hirdesh ji
ReplyDeleteshuruat seedhe karte hain. beete 10 saal mein hindi patrakarita mein bade badlaw aaye. falak par 1-2 patrakar chamke lekin wo bhi electronic mein. hindi print mein to shayad hi koi patrakar chamak paaya hai. wajah journalism ki parvarish se lekar kaam karne tak sab adhkachre the. chhote sheharon mein degree dene walon ne satyanash kar diya. hindi patrakarita pair chhune par tiki hai. jaatiwaad charam par hai. beete 5 saalon mein ek aisi khabar batayein jo kisi hindi akhbaar ne chhapi ho aur mudda ban gayi ho. jawab hai nahin. abne hit saadhne k liye hindi print ne hindi patti ko girwi rakh diya. kuch papers ki pehle page ki lead dekhiye. sir peetne ka man karta hai. aakhri page tak setting hoti hai. shehar mein hota kuch aur hai aur likha kuch aur jaata hai. wajah malik-nukar ki dukan chal rahi hai. public to hai ullu banne k liye. indian expresski khabar ka tranlation hota hai aur agle din wo hindi akhbaaron mein mil jaati hai. samantwad bhi hindi patrakarita mein zinda hai. khud ko no. 1 kehne walon ki khabaron ka status dekhiye? har hindi akhbaar kisi neta ka chamcha hai. pehli baar dek par baithe aur reporting karne mein achchi soch wale ladke nahin hai to editor kahan se aayenge. wo to shukra hai ki iimc abhi hai warna news channel blue film dikhate aur akhbaar mastram chhapte.
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