राजनीति की दुनिया में चुनाव एक पर्व की तरह होता है, जब कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए फसल काटने का वक्त होता है। जनतंत्र के हिसाब से यह पर्व जनता का होना चाहिए, जब आम मतदाता नेताओं को बता सकें कि उन्होंने पिछले पाच वर्षो में क्या बोया और अब वे क्या काटेंगे ? लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है....... या फिर वोटर इस चुनाव में सिर्फ घी डालने का ही काम करता है। उसके घी रूपी वोट से बड़े-बड़े रजनीतिक परिवारों के चिराग रोशन होते हैं।
इस बार विधानसभा चुनावों में भी कई बड़े नेताओं के घरों के चिराग ही चमकेंगे। इस बार महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बेटे राजेंद्र शेखावत, सुशील कुमार शिदे की बेटी प्रणीति, नारायण राणे के बेटे नितेश राणे काग्रेस की तरफ से मैदान में है।
काग्रेस की लिस्ट में कम से कम 20 नाम ऐसे हैं, जो या तो बड़े नेताओं के रिश्तेदार हैं या फिर किसी बड़े नेता के करीबी। इसी तरह बीजेपी ने भी स्वर्गीय प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन और गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा को टिकट दिया है।
ऐसे में आम कार्यकर्ताओं या उम्मीदवारों के लिए जगह कहाँ रही? उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में अमरावती सीट! वहाँ से काग्रेस विधायक और सुनील देशमुख ने भले ही कितना काम किया हो, लेकिन अगर सीट पर महामहिम राष्ट्रपति के पुत्र का दिल आ गया तो फिर उन्हें कौन रोक सकता है?
विलासराव देशमुख को काग्रेस हाईकमान ने भले ही 26/11 के हमले के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार दिया, लेकिन एक ही साल में उनकी गलतियों को भुला दिया। पिछले साल काग्रेस हाईकमान की नजर में वह मुख्यमंत्री बनने लायक नहीं थे, लेकिन अब वह कैबिनेट मंत्री हैं। उनके भाई महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं और अब उनके पुत्र भी विधानसभा में प्रवेश की तैयारी में हैं।
सच्चाई भी यही है कि अमूमन इनमें से सभी स्टार पुत्र या पुत्री जीत भी जाएंगे, क्योंकि जनता के पास विकल्प नहीं है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो बालीवुड और पॉलीवुड यानी पोलिटिक्स में एक जैसे ही हालात हैं। बालीवुड में भी बड़े सितारों के बच्चों ने बाहरी कलाकारों के रास्ते को रोक रखा है और राजनीति में भी यही हाल है, लेकिन बॉलीवुड में दर्शकों के पास विकल्प ज्यादा है और वहा दर्शक स्टार पुत्र की फिल्म छोड़कर शाहरुख खान की फिल्म देख सकता है।
हालाकि अगर आप गौर करें तो अमिताभ बच्चन, धर्मेद्र, विनोद खन्ना, शशि कपूर, राज कपूर, राकेश रोशन, जितेंद्र आदि तमाम बड़े सितारों ने आखिरकार अपने बेटों को भी फिल्म स्टार बना ही दिया। यही हाल देश और खासकर महाराष्ट्र की राजनीति का है।
अशोक चव्हाण, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे तीनों ही राजनीतिक परिवारों की देन हैं। विलास राव देशमुख, शरद पवार और शिदे जैसे नेता अपने दम पर आए, लेकिन अब चाहत है उनके बेटे और बेटिया ही वर्षो तक सत्ता पर काबिज रहें। बाल ठाकरे कितनी ही मराठी मानुष की आवाज उठाएं, लेकिन अपनी पार्टी की कमान उन्होंने अपने पुत्र उद्धव को ही सौंप दी है। राज ठाकरे आज इसलिए इतने बड़े बने, क्योंकि उनके नाम के पीछे ठाकरे लगा है।
अगर वह राज सावंत या राज कामले होते तो शायद हम उनकी बात ही नहीं कर रहे होते। शरद पवार हों या सुशील कुमार शिदे या फिर विलास राव देशमुख, ये सभी जमीन से उठकर अपने दम पर पर आए, लेकिन ये जच्बा अब और नहीं। ये सब अब चाहते हैं कि जो जनता पहले इनके पीछे चलती थी, वह अब सुप्रिया सुले, अमित देशमुख और प्रणिति शिदे को भी जीता कर लाए और उन्हें मंत्री बनाए।
ऐसा लगता है सफल लोग, चाहे नेता हों या अभिनेता हाथ में आई सत्ता को हमेशा अपने परिवार तक सीमित रखने की कोशिश को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन देते हैं। हमारे देश में कश्मीर से लेकर केरल तक चाहे वह गाधी परिवार हो या फिर करुणानिधि, परिवारवाद की कथाएं हर राज्य में भरी पड़ी हैं। जहाँ एक बार सत्ता एक परिवार के हाथ में आई और दशकों तक फिर बाहर नहीं गई।
काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी ने परिवारवाद को पीछे धकेलने की कोशिश जरूर की, जब उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। काग्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब पार्टी ने गाधी परिवार से बाहर के किसी नेता को चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार खुलेआम घोषित किया, लेकिन कुछ महीने बाद ही सोनिया जी को अपने नेताओं के पुत्र मोह के सामने झुकना पड़ा।
जनतंत्र का मतलब है जहाँ आम जनता का चुना हुआ राजा हो, लेकिन जरा सोचिए, हम राजा जरूर चुनते हैं, लेकिन राजा बनने का उम्मीदवार कौन होगा, यह हम नहीं चुन पाते। वोटर के सामने एक लिस्ट रख दी जाती है, जिसमें से उसे किसी एक को चुनना है, लेकिन उस सूची में किसका नाम होगा, यह हम नहीं चुनते, बल्कि बड़ी पार्टियों के आका चुनते हैं। तो फिर यह पूरा जनतंत्र कहाँ और कैसे हुआ ? क्या हम ऐसे जनतंत्र में जी रहे हैं, जिसे परिवारतंत्र चला रहा है ?
असल में आधा चुनाव तो तभी खत्म हो जाता है, जब बड़ी पार्टिया अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करती हैं, क्योंकि हमारे सारे विकल्प वहीं पर सीमित हो जाते हैं। हमें एक ऐसे उम्मीदवार को वोट देना है, जिसे हमने नहीं चुना हो। कितना दिलचस्प है जनतंत्र!
बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची में बड़े नेता या तो अक्सर अपने बच्चों का नाम रखते हैं या फिर अपने रिश्तेदारों का और या अपने बेहद करीबी लोगों का। हमने कई बार बड़े नेताओं के ड्राइवरों और सेक्रेट्रियों तक को चुनाव लड़ते हुए देखा है। इसमे कई जीत भी जाते हैं।
और तो और, आजकल मितव्ययिता का फैशन है। बड़े-बड़े नेता कई दशकों तक सत्ता सुख भोगने के बाद इकानमी क्लास में सफर कर रहे हैं। हवाई जहाज की जगह रेल से जा रहे हैं। ये दिखाने के लिए सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखते हैं।
मुझे लगता है मीडिया के लिए सादगी के पोस्टर लगाने की बजाए बड़े नेताओं को यह प्रण लेना चाहिए कि वे अपनी पार्टी और अपने क्षेत्र या अपने किसी पद का उत्तराधिकारी अपने परिवारजनों को नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र या पार्टी के सबसे सशक्त व्यक्ति को बनाएंगे।
क्या गाधी परिवार काग्रेस पार्टी की कमान परिवार के बाहर के नेता को सौंपेगा? क्या करुणानिधि डीएमके की कमान अपने बेटे या परिवारजनों को छोड़कर किसी और को सौंपेंगे? क्या मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, बाला साहब ठाकरे, उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद जैसे नेता इतनी हिम्मत नहीं जुटा सकते कि वे ऐलान करें कि उनकी पार्टी जनता की पार्टी है और उसका नेतृत्व कौन करेगा, यह भी जनता तय करेगी? शायद नहीं !!!
अभी तक हर बड़े राज्य में बड़े नेताओं ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाया है। इसलिए हमें हर बड़े राजनीतिक परिवार से कई कई सांसद , विधायक, मंत्री देखने को मिलते हैं। इन तमाम बड़े नेताओं को सांसद , मंत्री या विधायक बनाने के लिए सबसे पहले पुत्र या पुत्री का चेहरा दिखता है। इसलिए हम इन्हें यूथ ब्रिगेड के नाम पर अपना प्रतिनिधित्व करते देखते हैं।
इस मामले में हमें कम्युनिस्ट सरकारों की तारीफ करनी होगी, क्योंकि वहाँ पर परिवारवाद कम रहा है और ज्यादातर नेता काडर के जरिए आए हैं, अपने परिवार के माध्यम से नहीं।
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