लोक गीतों की परंपरा देश की माटी से जुड़ी परंपरा है। आम लोगों के खून में बसी परंपरा है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बोली चाहे बृज की हो या बुन्देलखण्ड की या फिर अवधी सभी में हिन्दी की रूह झलकती है।
यह विचार लोक गीत सम्राट देशराज पटेरिया ने जनकपुरी महोत्सव में आयोजित लोक गीत के कार्यक्रम के बाद भेंट वार्ता में व्यक्त किए। उन्होने कहा कि लोक गीतों में भारतीय संस्कृति के साक्षात दर्शन होते है। उन्होंने कहा कि अपना भेष और अपनी भाषा और अपनी ध्वनि जिसे सुनकर एक बार देवता भी मंत्रमुग्ध होकर नाचने का मन करने लगे उसे लोकगीत कहते है।
श्री पटेरिया ने कहा कि एक गाने की ध्वनि पर युवा पीढ़ी थिरकने लगी थी और कहती थी कि मार ठुमका बदल गई चाल मितवा लेकिन उन्हें तो कुछ बदला नजर नहीं आ रहा है। लोग कहते है पश्चिमी सभ्यता हावी हो रही है। वे कहते है उन्हीं नहीं लगता है कि पश्चिमी सभ्यता भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर हावी हो सकेगी। हमारे देश की देवतुल्य सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की जरूरत नहीं वह तो वातावरण में रची बसी है।
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